CBI Action on Harsh Mander and India’s Healthcare Fraud

हर्ष मंदर की सीबीआई जांच और भारत में प्राइवेट हेल्थ केयर का काला सच

भारत में इन दिनों दो गंभीर मुद्दे सुर्खियों में हैं — सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर के खिलाफ CBI की जांच और दूसरी तरफ देश में निजी स्वास्थ्य सेवाओं (प्राइवेट हेल्थकेयर) की लूट। ये दोनों घटनाएं शासन व्यवस्था, सामाजिक संगठनों की स्वतंत्रता और स्वास्थ्य सेवाओं के व्यवसायीकरण से जुड़ी गहरी समस्याओं को उजागर करती हैं।

अधिक जानते हैं

हर्ष मंदर पर CBI की जांच: आखिर हुआ क्या?

देश के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर और उनके NGO Centre for Equity Studies (CES) के खिलाफ CBI ने फरवरी 2024 में FIR दर्ज की और उनके कई ठिकानों पर छापेमारी की। आरोप था कि उन्होंने FCRA (विदेशी चंदा विनियमन अधिनियम) का उल्लंघन किया है।

किन बातों पर सवाल उठाए गए?

CBI द्वारा दर्ज मामले में यह आरोप लगाए गए:

  • साल 2020–21 के दौरान विदेशी चंदे से प्राप्त ₹32.7 लाख रुपये ऐसे लोगों को ट्रांसफर किए गए जो संस्था के कर्मचारी नहीं थे।
  • ₹10 लाख रुपये उन कंपनियों को दिए गए जो FCRA के तहत पंजीकृत नहीं थीं
  • साल 2011 से 2021 के बीच मिले विदेशी चंदे के सही उपयोग का कोई पुख्ता रिकॉर्ड नहीं रखा गया।

अब तक की घटनाओं की टाइमलाइन

  • फरवरी 2024: CBI ने हर्ष मंदर और CES से जुड़े कई ठिकानों पर दिल्ली में छापे मारे।
  • इससे पहले NCPCR (बाल अधिकार आयोग) ने भी उनके बालगृहों को लेकर सवाल उठाए थे।
  • ED और इनकम टैक्स विभाग ने भी उनके वित्तीय दस्तावेजों की जांच की थी।

 हर्ष मंदर का पक्ष

हर्ष मंदर, जो एक पूर्व IAS अधिकारी और लेखक हैं, ने सभी आरोपों को सिरे से खारिज किया। उन्होंने इसे “राजनीतिक बदले की कार्रवाई” बताया और कहा कि सरकार समाजसेवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को डराने की कोशिश कर रही है।

समाज का समर्थन

देश के कई सामाजिक संगठनों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने मंदर के समर्थन में बयान दिए। उनका कहना था कि यह कार्रवाई एक व्यापक रणनीति का हिस्सा है, जिसका मकसद है — विरोध की आवाजों को कुचलना।

भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं का काला सच

जहां एक तरफ सामाजिक कार्यकर्ताओं पर कानूनी कार्रवाई हो रही है, वहीं दूसरी ओर देश की निजी स्वास्थ्य सेवाएं मुनाफाखोरी और मरीजों के शोषण को लेकर लगातार आलोचना का सामना कर रही हैं।

इलाज या लूट?

भारत के प्राइवेट अस्पतालों पर इन आरोपों के गंभीर उदाहरण सामने आए हैं:

  • मामूली इलाज के लिए भारीभरकम बिल वसूलना
  • अनावश्यक सर्जरी और टेस्ट कराकर बिल बढ़ाना।
  • फीस और इलाज की जानकारी पहले नहीं देना — पूरी तरह से अपारदर्शिता

सच्ची घटनाएं जो चौकाती हैं

  • 2023 में एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मध्यम वर्ग के 60% से ज़्यादा लोग मेडिकल खर्च की वजह से कर्जदार या दिवालिया हो गए।
  • कोविड के दौरान ICU में ₹1.5 लाख प्रति दिन जैसे बिल सामने आए, जिससे साफ हुआ कि बीमारियों को एक बिजनेस मॉडल बना दिया गया है।

नियम तो हैं, पर असर नहीं

भारत में हेल्थ मिनिस्ट्री की ओर से कई गाइडलाइंस जारी हुईं, लेकिन ज़मीन पर कोई खास बदलाव नहीं:

  • अधिकतर राज्यों में इलाज की दरों पर कोई नियंत्रण नहीं।
  • मरीजों की शिकायतों का निवारण करने के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं।
  • Clinical Establishments Act का पालन बेहद कमजोर।

डॉक्टर: सेवा या कारोबार?

जहां डॉक्टर को समाज में भगवान की तरह देखा जाता था, वहीं आज उन्हें ऐसे सिस्टम में काम करना पड़ रहा है जहां मुनाफा सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गया है।

क्या दोनों मुद्दे एक ही तस्वीर के दो पहलू हैं?

कागज़ पर भले ही ये दोनों मुद्दे अलग लगें — लेकिन इनका मूल कारण एक ही है: देश की जनता का अपने सिस्टम से भरोसा उठना

डर और अविश्वास का माहौल

  • समाजसेवी हर वक्त किसी न किसी जांच एजेंसी के निशाने पर होते हैं।
  • अस्पताल मरीजों को लूटते हैं, लेकिन कोई कठोर सज़ा नहीं मिलती।
  • सरकारी संस्थाएं या तो चुप हैं या फिर खुद ही इस व्यवस्था का हिस्सा बन चुकी हैं।

अब रास्ता क्या है?

सामाजिक संगठनों के लिए

  • FCRA की प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए।
  • NGOs को अपने खातों का साफसुथरा लेखाजोखा रखना चाहिए, लेकिन सरकार कानूनों का इस्तेमाल कर दबाव नहीं बना सकती

निजी अस्पतालों के लिए

  • सभी अस्पतालों में इलाज के रेट मानकीकृत और पारदर्शी होने चाहिए।
  • मरीजों के अधिकार को कानूनी सुरक्षा मिलनी चाहिए।
  • सरकार को सरकारी अस्पतालों में निवेश बढ़ाना चाहिए, ताकि आम जनता को निजी अस्पतालों पर निर्भर न रहना पड़े।

निष्कर्ष

हर्ष मंदर पर CBI की कार्रवाई और निजी स्वास्थ्य सेवाओं की लूट — दोनों ही घटनाएं भारत में लोकतंत्र, पारदर्शिता और नैतिकता की गिरती स्थिति की ओर इशारा करती हैं। जहां एक ओर सामाजिक कार्यकर्ताओं को डराया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ मरीजों को व्यवसायिक व्यवस्था का शिकार बनाया जा रहा है। इस सबके बीच जनता की जागरूकता और स्वतंत्र निगरानी ही वह ताकत है, जिससे बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।

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